रात की नींद है आधी ,पेट की भूख आधी सी है..
पीने का पानी आधा और हलक की प्यास आधी है,
मन के सारे भाव भी अब आधे-आधे से हैं..
आधा सा ओढ़ता हूं तो कभी आधा सा उतारता हूं..
तुम्हारे बिन कुछ आधा सा ही चल पाता हूं, फिर आधा रुकता हूं आधा सोच पाता हूं पर चलते चलते उस आधे से रास्ते पर ही चलता जाता हूँ..
मुझे पता है यह जीवन तुम्हारे बिना आधा सा है और उसे पूरा करने की सोच में आधे आधे कदम रख पाता हूँ..
आधा सा देख पाता हूं क्योंकि आधा सा धुंधला होता है सब, आधा सा चख पाता हूं क्योंकि जीभ में भी अधूरापन है जो लड़खड़ा के आधा सा ही बोल पाती है..
पूरा बोलूं भी तो क्या बोलूं मन में भाव ही हमेशा आधा सा रहता है..
अब लोग कहने लगे हैं बड़े अच्छे से लगते थे तुम पर आजकल आधेे से हो गए हो, आधे से इस जीवन में अब कई सपने, कई इरादे आधे आधे से हैं,
जीवन की हर चाल पिट गई हो जैसे..
इधर-उधर बिखरे से प्यादे भी अब अपनी हर चाल में आधे आधे से हैं..
न जाने क्यों अब आत्मा आधी है और जाने क्यों अब ये सांसे भी आधी ही हैं..
मन के हर सपने का रंग आधा है, कैसे कहूं तुमसे आत्मा में बसा हर प्राण आधा है..
और ना अब पूरे से उस आसमान में उड़ पाता हूं क्यूंकि तुम्हारी प्रेम कटार से कटा मन-पखेरू का वो पंख भी तो अब आधा ही है..
- संदीप के.मिश्रा, गुलाबी नगर
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