घटिया फ़िल्म - तपन भट्ट


सच्ची
कह रहा हूँ तीन दिन से मेरा तो दिमाग ही खराब हो रहा है। पूरे 1000 रुपये और चार घण्टे का बंटाधार हो गया मेरा। जब आपको पता ही नहीं है कि कोई काम कैसे करना चाहिए तो फिर उसमें सीतमात में टांग अड़ाने की ज़रूरत क्या है ? पर नहीं साहब जो काम हमको नहीं आता हम तो वो ही करेंगे। हमको गोलगप्पे बनाने नहीं आते, फिर भी हम बनाएंगे। हमको हलुआ बनाना नहीं आता फिर भी हम बनाएंगे। हमको फ़िल्म बनानी नहीं आती , फिर भी हम तो बनाएंगे। मैं बात अग्निहोत्री जी की कर रहा हूँ। अब नाम में विवेक होने से ज़रूरी थोड़ी है विवेक आ ही जाए। क्या फालतू की बंडल फ़िल्म बना दी इन्होंने। ये कोई फ़िल्म है? फ़िल्म का एक भी एलिमेंट नहीं है उनकी फिल्म में। अरे भाई फ़िल्म बनाने का कीड़ा इतना ही काट रहा था तो पहले सीख तो लेते कि फ़िल्म बनती कैसे है? उसमें क्या क्या होना चाहिए? क्या दिखाना चाहिए और क्या नहीं दिखाना चाहिए? फिल्मी ग्रामर की ए बी सी आती नहीं और मुँह उठा कर चले आये फ़िल्म बनाने।

अजी मैं तो सोच रहा हूँ कि हमारे महान फ़िल्म बनाने वाले जो अब इस दुनिया में नहीं हैं जैसे महबूब जी, राज कपूर साहब, यश चोपड़ा जी, बी आर चोपड़ा जी, सिप्पी साहब और अभी जो धरती पे कायम हैं जैसे महेश भट्ट की, करण जौहर जी, संजय लीला भंसाली जी, आदित्य चोपड़ा जी, विशाल भारद्वाज साहब, रोहित शेट्टी साहब, अजय बहल जी और भी बहुत से फिल्मकार कितना एम्ब्रेसमेन्ट फील कर रहे होंगे कि एक नौसिखिए ने कितनी कचरा फ़िल्म बना दी। हद है। अरे जनाब फ़िल्म यकीन दिलाने की कला है। मतलब जो नहीं हो उसे ऐसा दिखाओ कि यकीन आ जाये। आपने तो जो हुआ उसे यों कि त्यों दिखा दिया। ये भी कोई फ़िल्म हुई ? हद है नासमझी की भी।

फ़िल्म देखो तो फ़िल्म में खामियां इतनी है कि फ़िल्म विधाता का डायलॉग याद आ जाता है। एक दो तीन चार पांच छह... तुम्हारी गिनती खत्म हो जाएगी पर फ़िल्म की खामियां खत्म नहीं होंगी। पहली खामी ये कि फ़िल्म में कोई हीरोइन शिफॉन की साड़ी पहने पहाड़ी पर या पेड़ के इर्द गिर्द या बर्फ के चारों तरफ दौड़ती, नाचती या गाती ही नहीं है। इसका मतलब है कि आपने यश जी से, करण जी से या रोहित जी से कुछ सीखा ही नहीं। छी: छी: छी: शर्म आनी चाहिए। फ़िर फ़िल्म में कोई भी एक्स्ट्रा मैरिटल रिलेशन नहीं है, कोई भी अवैध संबंध नहीं हैं, कोई भी अपने दोस्त की बीवी या उसकी गर्लफ्रैंड से या कोई सेक्रेटरी अपने बॉस से, या अपने हज़बैंड के बॉस से, या कोई लड़की अपनी सहेली के हज़बैंड से, या कोई स्टूडेंट टीचर से फिजिकल रिलेशन नहीं बनाता। अब ऐसे में महेश भट्ट जी को या विक्रम भट्ट जी को तो बुरा लगेगा न ? फ़िल्म बनाने से पहले कुछ तो सोच लेते। पूरी फिल्म में एक भी वेश्या नहीं है, कोई कॉलगर्ल नहीं है, कोई कोठा नहीं है, कोई चकला नहीं है। हद है यार। फ़िल्म बनाने की एल के जी नहीं पढ़ी और फ़िल्म बनाने बैठ गए। अरे कोई गंगू बाई, या मुन्नी बाई या रज्जो रानी टाइप की रंडी को फ़िल्म में दिखाते कि कैसे किसी उच्च कास्ट के आदमी ने निम्न कास्ट की लड़की को धोखा देकर रंडी बनाया और फिर बाद में वो रंडी इलेक्शन लड़ी और चुनाव जीती। क्या मस्त फ़िल्म बनती। कसम से ऊपर बैठे राज साहब, बी आर साहब और नीचे जमे महेश भट्ट, संजय लीला जी जैसे लोग कंधे पे बैठा लेते। और कुछ नहीं तो समलैंगिंक संबंध तो दिखाते। दो लड़कियां जो आज़ाद खयाल की हैं साथ रहना चाहती हैं और किसी को हक़ नहीं कि उनको साथ रहने से रोके। या दो लड़के हैं। एक लड़का शान से सर उठा कर अपने पेरेंट्स से बोलता कि मैं गे हूँ, और उसकी सिस्टर या भाभी उसका साथ देती, बोलती इसे अपनी लाइफ जीने का पूरा हक है। ये कहानी होती तो आज का यूथ भी इम्प्रेस होता। अब तीस साल पुराने किसी घटिया से सब्जेक्ट पर फ़िल्म बनादी। पंडितों को घर से निकाल दिया। ये भी कोई कहानी है ? जनाब अगर ये कहानी होती तो अब तक क्या करन जौहर, महेश भट्ट, संजय लीला भंसाली, रोहित शेट्टी, दिबाकर बनर्जी, एकता कपूर या विशाल भारद्वाज जैसे महान फिल्मकार चुप बैठते ? अजी सब इस पर फ़िल्म बना चुके होते।

मुम्बई के अंडरवर्ल्ड पर फ़िल्म बनाते, किसी छोटी उम्र के लड़के का उसकी माँ जितनी एज की औरत से, या छोटी लड़की का अपने अंकल की एज के आदमी से प्रेम संबंध दिखाते, कोई गैंग्स ऑफ वैसेपुर टाइप गैंगवार दिखाते, अरे किसी ट्रांसजेंडर की दुविधा ही दिखा देते कि उसने एक लड़के से प्रेम कर लिया अब फिजिकल रिलेशन कैसे बनाये ? कसम से क्या धांसू सब्जेक्ट होता। किसी दलित औरत या आदमी का शोषण और उसका व्यवस्था के खिलाफ मरते दम तक संघर्ष दिखाते तो आधे से ज़्यादा महान फिल्मकार आरती उतारते तुम्हारी। अरे और कुछ करना नहीं आ रहा था तो बैक ग्राउंड में कार और बसें तो उड़वा देते कम से कम। तुमने तो कॉलेज भी वो दिखा दिया जो किसी भी एंगल से कॉलेज लग ही नहीं रह था। फिल्मों में कॉलेज ऐसा होता है क्या ? अरे कारण जोहर या आदित्य चोपड़ा से पूछो कि फिल्मी कॉलेज का कैम्पस कैसा होता है ? जहां सीढ़ियों पर, गार्डन में, छतों पर, गैलेरी में लड़के लड़कियां शार्ट मॉडर्न ड्रेसेज में घूमते रहें, साइंस लैब में किस विस करें, जहां टीचर गैम्बलर्स हों, जहां फैशन शो हों, ये हो, वो हो, जिसमें लक्ज़री कारों से लड़की लड़के आएं और लव लपाटा करें। अब तुमने करण जोहर, आदित्य चोपड़ा, राजकुमार हिरानी या रोहित शेट्टी के कॉलेज तो देखे नहीं। देखते तो थोड़ा तो सीखते कि फिल्मी कॉलेज कैसे होते हैं।

खैर जनाब मैं बात को लंबा नहीं घसीटना चाहता। तुम मेरे 1000 रुपये और वो 4 घंटे वापिस करो जो मैंने फ़िल्म देखते हुए बर्बाद किये। समझे ? और आइंदा फ़िल्म बनाओ तो थोड़ी अक्ल और विवेक का इस्तेमाल कर के फ़िल्म बनाओ। ये तो तुमने तुक्के में 200 करोड़ कमा लिए वर्ना कोई टके को भी नहीं पूछता। एक सब्जेक्ट बताता हूँ तुमको। वैसे तो इस पर मैं फ़िल्म बनाना चाहता हूं पर कोई नहीं, ये सब्जेक्ट तुम लेलो। पंडितों ने पूरी घाटी में कब्ज़ा कर रखा है और स्थानीय लोगों को प्रताड़ित करते हैं। एक पंडित एक स्थानीय लड़की को शादी का झांसा देकर प्रेग्नेंट कर देता है। कुछ दिनों बात पंडितों का घाटी से मन भर जाता है और वो प्रशासन से सांठ गांठ कर वहां से चले जाते हैं। प्रेंग्नेंट लड़की का नाजायज लड़का प्रताड़ना और गालियां खा सुन कर बड़ा होकर आतंकवादी बनता है और अपने नाजायज बाप से बदला लेने यूपी, बिहार या राजस्थान आता है। एक किसी दूसरे पंडित की लड़की को उससे मोहब्बत हो जाती है और वो उस सताए हुए आतंकवादी का पूरा साथ देती है। अंत में वो आतंकवादी अपने उस बेरहम और नाजायज पिता को मारने की जगह माफ कर देता है क्योंकि नफरत फैलाना उसका काम नहीं, प्रेम और प्यार देना ही उसका काम है। ये फ़िल्म बनाओ जनाब, नहीं इसे यहां से ऑस्कर के लिए नामित किया जाए तो कहना। मैने पहले ही कहा है कि फ़िल्म यकीन दिलाने की कला है। मतलब जो होता नहीं वो दिखाओ और यकीन दिलाओ। सच दिखाओगे तो कौन यकीन करेगा ? बात को समझो तो ठीक नहीं तो ऐसे ही घटिया फ़िल्म बनाते रहो।

- तपन भट्ट, लेखक-समीक्षक-आर्टिस्ट
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