पित्रसत्तात्मक विचारधारा की जकड़न कब ढीली होगी ! - हेमलता शर्मा


सन 1884 में मार्क्स के सहयोगी एंगल्स ने अपनी पुस्तक “ओरिजन ऑफ द फैमिली ,प्राइवेट प्रॉपर्टी एंड द स्टेट” में पित्रसत्ता के आरम्भ को लेकर एक मत व्यक्त किया था  उन्होंने अपनी पुस्तक में लिखा है कि “स्त्रियों की अधीनता की शुरुआत व्यक्तिगत संपत्ति की शुरुआत के साथ हुई, वर्ग विभाजन और स्त्री अधीनता एतिहासिक तथ्य हैं ”

हर दिन अखबार हो या टी वी न्यूज़ चैनल महिलाओं पर घरेलू हिंसा,यौन उत्पीडन,बलात्कार जैसे जघन्य अपराधों की खबरें देखने पढने को मिलती हैं |महिला के साथ हुए अपराध में महिला का ही दोष ढूंढना आम सी बात हो गई है। कभी छोटे कपड़े तो कभी महिला का चरित्र निशाने पर होते हैं पर  असल में यह पित्रसत्ता की गहरी सोच का परिणाम  है।लड़कियों का  छोटे कपडे पहनना  तो रेप का कारण बताया जाता है! पर उस गन्दी सोच, मानसिक विद्रूपता  पर भी  सवाल उठाने से कतराते हैं, जो रेप जैसे अनेकों उत्पीडन की ज़िम्मेदार है। उन लोगों का खुद के व्यवहार पर नियंत्रण इतना कमज़ोर है कि उसका भी दोष किसी स्त्री पर डाल दिया जाता है। औरतें कपड़े कैसे पहने? कैसी भाषा हो उनकी? कैसे उठे बैठें? जैसी उनकी व्यक्तिगत पसंद पर की जाने वाली टिप्पणियां दर्शाती हैं कि समाज में जेंडर भेदभाव किस कदर अपनी जडें पसार चुका है। महिलाओं को अक्सर ऐसी दोयम दर्जे पर रखने वाली सोच की जडें बहुत गहरी हैं। 

भारत में औरत एक माँ ,बहन,बेटी ,पत्नी,प्रेमिका दोस्त जैसे रूपों में जानी जाती है, उसका व्यक्ति  के रूप में पहचान पाने का संघर्ष अभी जारी  है। रिश्तों के आवरण ने उसकी शख्सियत को ढांक रखा है। ये आवरण इस कदर महिलाओं की रूह के साथ रच बस गए हैं कि वो खुद भी इन ओढ़े हुए रिश्तों की तह में रमी नज़र आती है। अच्छी माँ, अच्छी बेटी, अच्छी पत्नी जैसे अप्रत्यक्ष दबावों से परे सोचना उन्हें कोई अपराध सा लगता है।

आम औरत से अपने अस्तित्व की बात करना किसी दूसरी दुनिया की बात करने जैसा लगता है। जब  पित्रसत्ता के दायरों से बाहर सोचना ही मुश्किल लगता है तो अपने अधिकारों के लिए बोल पाने की हिम्मत कैसे  जुटाएं। ये जकडन इतनी मज़बूत है कि महिलाएं छटपटा कर रह जाती है न विरोध कर पाती है और न ही अपनी सोच का दायरा बढ़ा पाती हैं।

पित्रसत्ता एक व्यवस्था के रूप में समाज में विकसित हुई है। सिल्विया वैल्बी अपनी किताब “थियोरायजिंग पेट्रीयार्की” में कहती हैं कि –“यह सामाजिक ढांचों और रिवाजों की एक ऐसी व्यवस्था है जिसके अंतर्गत पुरुष स्त्रियों पर अपना प्रभुत्व जमाते हैं”। इसका मतलब है यह कि  इस व्यवस्था को,इसके मूल्यों को  अपनाने वाले पुरुष और महिलाएं दोनों ही इसका अहम हिस्सा हैं। यानि पित्रसत्तात्मक सोच उनकी सोच बन जाती है।

स्त्री के रहन सहन, वेशभूषा, कार्यक्षमता, मानसिकता, यौनिकता, भाषा, कार्यक्षेत्र, भूमिका और अपने वजूद पर ही खुद का अख्तियार नहीं है। इन सबकी ज़िम्मेदारी एक दबावकारी प्रभुत्ववादी सोच ने ले रखी है। जो समय समय पर ऐसी टिप्पणियों के रूप में हमारे सामने आती है। जैविकीय भिन्नताओं को छोड़कर समस्त विभेद समाज ने ही पैदा किये हैं |और पीढ़ी दर पीढ़ी पाल पोस कर हस्तान्तरित किये जाते रहे हैं।

सन 1884 में मार्क्स के सहयोगी एंगल्स ने अपनी पुस्तक “ओरिजन ऑफ द फैमिली ,प्राइवेट प्रॉपर्टी एंड द स्टेट” में पित्रसत्ता के आरम्भ को लेकर एक मत व्यक्त किया था। उन्होंने अपनी पुस्तक में लिखा है कि “स्त्रियों की अधीनता की शुरुआत व्यक्तिगत संपत्ति की शुरुआत के साथ हुई, वर्ग विभाजन और स्त्री अधीनता एतिहासिक तथ्य हैं”

आज भी आलम यह है कि या तो बेटियों को जन्मने मत दो या पैदा हो गई तो समाज में उत्पीडन के इतने प्रकार हैं कि जीना मुश्किल कर देते हैं। बलात्कार, यौन उत्पीडन,घरेलू हिंसा,छेडछाड ,कार्यस्थल पर यौन उत्पीडन, जैसे अपराधों की लम्बी फेहरिस्त है। न घर में सुरक्षित न बाहर। महिलाओं के लिए आखिर वो कौनसी जगह है जहाँ  हिंसामुक्त जीवन जिया जाये? ये यक्ष प्रश्न समाज के सामने सदियों से खड़ा है।

जेंडर असमानता  औरत और पुरुष के बीच असमानता का मुद्दा नहीं है। यह  संघर्ष तो समानता में विश्वास रखने वाले और दबावकारी प्रभुत्व कायम रखने वालों के बीच है।

नारीवादी विद्वान ऐन ओकली का कहना है की-“जेंडर का सम्बन्ध संस्कृति और सामाजिक श्रेणियों से है” यानि जेंडर परिवर्तनशील है स्थान, समय और परिस्थितियों में स्त्री पुरुष की भूमिकाओं में बदलाव होता रहता है। 

नारीवादी अर्थशास्त्री बीना अग्रवाल ने अपनी पुस्तक “अ फील्ड ऑफ वंस ओन : जेंडर एंड लैंड राइट्स इन साउथ एशिया” में जेंडर अवधारणा पर लिखा है कि “परिवार के भीतर संसाधनों व् अवसरों की बराबर पहुँच नही होती है। इसी वजह से आन्तरिक संघर्ष जन्म लेता है। परिवार के सदस्यों के बीच असमानता पैदा करने वाला एक अहम तत्व है जेंडर है ”।

नारीवाद एक्टिविस्ट मरिया मीस अपनी किताब “द सोशल ओरीजन ऑफ द सेक्शुअल डिविजन ऑफ लेबर” में लिखती है कि –“पुरुषत्व और नारीत्व जैविकीयता का नहीं बल्कि एक लम्बी एतिहासिक प्रक्रिया का परिणाम है, हर ऐतिहासिक युग में इसे अलग अलग तरह से परिभाषित किया गया है”।   

जेंडर समानता लाने के प्रयासों की ज़रूरत..
लड़का रोये तो कहा जाता है कि “क्या लडकियों की तरह आंसू बहाता है?” या “मर्द को दर्द नहीं होता”  ये कह कर उसकी संवेदनाओं की अभिव्यक्ति को भी नियंत्रित कर दिया जाता है। लड़की पैदा होने पर पिंक कलर और लड़का पैदा होने पर ब्लू कलर के कपड़े गिफ्ट करना तो आम सी बात हो गई है। यानि कि हम बच्चे के पैदा होते ही उसे जेंडर विभिन्नताएं गिफ्ट कर रहे हैं। बच्चा लड़की या लड़का होने पर भिन्न तरह से उसके साथ व्यवहार किया जाने लगता है।खिलाना,पिलाना,दुलारना तक भिन्न हो जाता है। बड़ा होने पर व्यवहार में दी गई ऐसी सीखें ही उसकी सोच का निर्माण करने में सहायक होंगी। यही प्रक्रिया तो समाजीकरण है। घर में जैसी शिक्षा बचपन से दी जाएगी उसका गहरा असर उसके पूरे जीवन पर पड़ता है। कच्चा मन जो सीख लेता है उसका बहुत गहरा असर उसके व्यक्तितव पर पड़ता है। अब लड़कियों के साथ साथ  लडकों को भी जेंडर संवेदनशील बनाने की ज़रूरत है। घर और स्कूल के वातावरण में बच्चों के लिए  समभाव का माहौल होगा तो समाजीकरण की प्रक्रिया सही दिशा में आगे बढ़ेगी। पित्रसत्ता एक ऐसा जाल है जिसके सभी सिरे एक दूसरे से जुड़े हुए हैं,|उनकी गांठें खोलना आसान तो नहीं हैं पर नामुमकिन भी नहीं। ये ढांचा समाज में इतनी मजबूती से रचा बसा है कि इसे तोड़ पाना तभी संभव हो पायेगा जब हर घर में थोड़े बदलाव की शुरुआत हो। स्त्री पुरुष की भूमिकाओं, गुण,वेशभूषा इत्यादि में भेद को जन्म देने वाली यानि जेंडर विभेदीकरण  की सोच को बदलने की ज़रूरत है। ये एक विमर्श का मुद्दा है। महिलाओं और पुरुषों को जेंडर विभेदीकरण पर मिलकर सोच में बदलाव लाने के प्रयास करने होंगे।

लेखक : हेमलता शर्मा
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